आवारगी, खानाबदोशी, बंजारापन।
कहो कुछ भी,
लेकिन इनका अपना अलग मज़ा है।
वो नए शहर की अलग सी चहल-पहल,
चाय का हल्का सा बदला हुआ स्वाद,
तुम्हें वो बदली हुई महक नहीं आयी सुबह की हवा में?
नाश्ता अलग मिला है ना आज?
कुछ नया अच्छा ही लगता है।
पर शाम को तुम्हारा घर जाने का मन करता है क्या!
छत कहती हूँ मैं उसे,
क्योंकि वहाँ जा कर वही तो दिखेगी।
घर छोड़ आये हो,
याद है ना, की वापस जाने पर कोई नहीं मिलेगा।
पर बताया न मैंने कि इसका एक अलग मज़ा है।
उम्मीदों के समंदर में नाव नहीं उतारनी पड़ती,
देखा है हमने, वहाँ का पानी अजीबोगरीब है।
जब नाव उतारा करते थे, ठीक से खे नहीं पाते थे।
अब ज़रूरत नहीं पड़ती,
नाव कोने में पड़ी है,
आख़िरकार।
भला, नए शहर में अपनी नाव कोई इतनी जल्दी पानी में उतारता है क्या!
जब तक नाव उतारने का समय आएगा, शहर बदल जायेगा।
चलो ठीक ही है।
नई बेंच पर बैठे होते है,
और तख्त हिलने लगता है, यहाँ भी।
कोई मरम्मत की नहीं सोचता,
क्योंकि हम सोचते है चाय पीने की, स्वाद ज़रा बदल हुआ है।
पर यार, शहर भी तो बदल गया है।
नए लोग, पुरानी चहल-पहल,
नया स्वाद, पुरानी चाय।
नया भेस, पुराने हम
नया शहर, पुरानी नाव।
पर अब हाथ थक भी गए है,
अब नाव खेने का दम नहीं बचा,
टूटी हुई बेंच पर बैठ शांति से चाय पीते है।
GOOD ONE
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